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कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यव॑ञ्चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑ऽउक्तिं॒ यज॑न्ति ॥३८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कु॒वित्। अ॒ङ्ग। यव॑मन्त इति॒ यव॑ऽमन्तः। यव॑म्। चि॒त्। यथा॑। दान्ति॑। अ॒नु॒पू॒र्वमित्य॑नुऽपू॒र्वम्। वि॒यूयेति॑ वि॒ऽयूय॑। इ॒हेहेती॒हऽइ॑ह। ए॒षा॒म्। कृ॒णु॒हि॒। भोज॑नानि। ये। ब॒र्हिषः॑। नम॑ऽउक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। यज॑न्ति ॥३८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:38


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पढ़ने और पढ़ाने हारे कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अङ्ग) मित्र ! (कुवित्) बहुत विज्ञानयुक्त तू (इहेह) इस-इस व्यवहार में (एषाम्) इन मनुष्यों से (यथा) जैसे (यवमन्तः) बहुत जौ आदि अन्नयुक्त खेती करनेवाले (यवम्) जौ आदि अनाज के समूह को बुस आदि से (वियूय) पृथक्कर (चित्) और (अनुपूर्वम्) क्रम से (दान्ति) छेदन करते हैं, उनके और (ये) जो (बर्हिषः) जल वा (नमउक्तिम्) अन्नसम्बन्धी वचन को (यजन्ति) कहकर सत्कार करते हैं, उनके (भोजनानि) भोजनों को (कृणुहि) करो ॥३८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे पढ़ाने और पढ़ने वालो ! तुम लोग जैसे खेती करनेहारे एक-दूसरे के खेत को पारी से काटते और भूसा से अन्न को अलग कर औरों को भोजन कराके फिर आप भोजन करते हैं, वैसे ही यहाँ विद्या के व्यवहार में निष्कपट भाव से विद्यार्थियों को पढ़ानेवालों की सेवा और पढ़ानेवालों को विद्यार्थियों की विद्यावृद्धि कर एक-दूसरे को खान-पान से सत्कार कर सब कोई आनन्द भोगें ॥३८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाऽध्यापकाऽध्येतारः कीदृशः स्युरित्याह ॥

अन्वय:

(कुवित्) बहुविज्ञानयुक्तः (अङ्ग) मित्र (यवमन्तः) बहुयवादिधान्ययुक्ताः (यवम्) धान्यसमूहम् (चित्) अपि (यथा) (दान्ति) छिन्दन्ति (अनुपूर्वम्) आनुकूल्यमनतिक्रम्य (वियूय) वियोज्य संमिश्र्य च (इहेह) अस्मिन्नस्मिन् व्यवहारे (एषाम्) जनानाम् (कृणुहि) कुरु (भोजनानि) पालनार्थान्यन्नानि (ये) (बर्हिषः) जलस्य (नमउक्तिम्) नमसोऽन्नस्य वचनम् (यजन्ति) सङ्गच्छन्ते ॥३८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अङ्ग ! कुवित्त्वमिहेहैषां यथा यवमन्तो कृषीव यवं वियूय चिदप्यनुपूर्वं दान्ति ये च बर्हिषो नम उक्तिं यजन्ति, तेषां भोजनानि कृणुहि ॥३८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे अध्यापकाध्येतारः ! यूयं यथा कृषीवलाः परस्परस्य क्षेत्राणि पर्यायेण लुनन्ति, बुसादिभ्योऽन्नानि पृथक्कृत्याऽन्यान् भोजयित्वा स्वयं भुञ्जते, तथैवेह विद्याव्यवहारे निष्कपटतया विद्यार्थिभिरध्यापकानां सेवामध्यापकैर्विद्यार्थिनां विद्यावृद्धिं च कृत्वा परस्परान् भोजनादिना सत्कृत्य सर्व आनन्दन्तु ॥३८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे अध्ययन व अध्यापन करणाऱ्यांनो! ज्याप्रमाणे शेतकरी एकमेकांचे शेत आळीपाळीने कापतात व धान्यापासून भूसा वेगळा करून अन्न तयार करून इतरांना भोजन देतात व नंतर स्वतः भोजन करतात तसे विद्यार्थ्यांनी विद्या प्रक्रियेत अध्यापकांची सेवा करावी व अध्यापकांनीही विद्यार्थ्यांची विद्या वृद्धिंगत करावी. खानपानासह सत्कार करावा व सर्वांनी आनंदात राहावे.